हरिवासर व्रत खासकऽ मिथिलामे विशेष प्रसिद्ध अछि। कहल जाइत छैक जे ई दुर्लभ व्रत होइत छैक, कारण पहिल दुर्लभ तऽ एहि व्रतक संयोग बहुत कम पकड़ाइत अछि। मनुष्यक जीवनमे बहुत कम हरिवासर व्रतक संयोग पकड़ाईत अछि। दोसर दुर्लभ जे कठिन व्रत होइत अछि, प्रायः दू दिन दू राइत अर्थात प्रायः ४८ घंटाक कठिन व्रत होइत अछि आ तकर उपरांत पारण।
जहिना ई दुर्लभ व्रत अछि तहिना ई पुण्यप्रद अछि। एकर महात्म्य अत्यंत कल्याणप्रद छैक। विधिपूर्वक ई व्रत कयलासँ मनुष्य सभ प्रकारक पाप आ क्लेशसँ मुक्त भऽ जाइत अछि। सभ शुभ मनोरथक पूर्ति करयवाला एहि व्रतकेँ कहल गेल अछि। अक्षय पुण्यक प्राप्ति होइत छैक। ‘हरिवासर’ नामक अर्थ हरिक वासर यानि दिन होइत अछि, यद्यपि हरिक दिन तऽ सभ दिन होइत अछि, सभकिछु तऽ हरियेमे व्याप्त अछि आ हरियेकेँ सभकिछु अछि। मुदा विशेष योगक संयोग पकड़ेलासँ ‘हरिवासर’ व्रत होइत छैक जे बहुत समयक बाद एहिबेर कार्तिकमे पकड़ा रहल अछि।
एहिबेर कार्तिकक देवोत्थान एकादशीमे हरिवासर व्रतक योग बनि रहल अछि। १२ नवम्बर २०२४, मंगलकेँ कार्तिक मासमे देवोत्थान एकादशी अछि, जाहि दिनसँ इ व्रत होएत। दोसर दिन बुध, द्वादशी आ सूर्योदयपूर्वेसँ संगहि सूर्योदयकाल एवं आगुओ प्रायः रातिक अंत धरि रेवती नक्षत्रक योग छैक। फलतः पवित्र हरिवासर व्रतक योग पकड़ा रहल अछि। अर्थात १२ नवम्बर, देवोत्थान एकादशी मंगलक सूर्योदय पूर्वसँ व्रत शुरू होयत, पुनः १३ नवम्बर, बुधकेँ दिन-राति व्रत होएत, तदुपरांत १४ नवम्बर, बृहस्पतिकेँ सूर्योदय उपरांत एवं प्रातः ०७:५४ सँ पहिने व्रतक पारण हेतै। ध्यान रहय जे एहि व्रतक पारण त्रयोदशीएमे होइत छैक, जे बृहस्पतिकेँ प्रातः ०७:५४ तक अछि, तें बृहस्पतिकेँ सूर्योदयक बाद आ प्रातः ०७:५४ सँ पहिले पारण कय ली।
जे बृहस्पतिक व्रत पहिनेसँ करैत रहैत छथि, तिनका ई व्रत करयमे आर कठिनाई होइत छनि, कारण ओ किछु फल लऽ कऽ त्रयोदशीमे पारण कऽ पुनः बृहस्पतिक व्रत करथि, अर्थात हुनका एक दिन आर बढ़ि जाइत अछि।