संपादकीय

जाति आधारित राजनीति, कतेक हद धरि प्रासंगिक ?

जाति आधारित राजनीति, कतेक हद धरि प्रासंगिक ?
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देशमें जहन कखनहुँ आ कतौह, जातिवादी राजनीतिक चर्च होइत अछि, त’ उत्तर प्रदेश आ बिहारक नाम सभक मष्तिष्कमें आबि जाइत अछि। एकर मजबूत आधार सेहो अछि, जयप्रकाश नारायणक, इमरजेंसीके विरोधमे कएल गेल आंदोलन आ ओहिसँ उपजल नेतागण, जाहिमे लालू, मुलायम, मायावती, रामविलास, नीतीश आदि अनेको नेता, अपन राजनीतिके आगू बढएबाक लेल जातिवादक सहारा लेलनि। एहनो नहि छैक कि, प्रदेशक मतदाता जातीय समीकरण नहि तोड़ने अछि, पूर्वमे अनेको एहेन प्रसिद्ध आ लोकप्रिय नेता भेलाह जिनका पक्षमे जाति – धर्मके कतिया, मतदान कएल गेल। जार्ज फर्नाडिस, मधु लिमये, जेबी कृपलानी, कर्पूरी ठाकुर, श्री कृष्ण सिंह आदि एहेन राजनेता भेलाह जिनका लेल ई समीकरण कोनो तरहेँ बाधक नहि सिद्ध भेल। जार्ज फर्नाडिस त’ मूल रूपसँ मैंगलोर (कर्नाटक) के छलाह, मुदा प्रदेशक राजनीतिमे बहुत पैघ अवधि धरि सक्रिय छलाह। मुजफ्फरपुर आ नालंदाक मतदाता, जॉर्जकेँ पक्षमे जाति आ धर्मसँ उपर उठि मतदान करैत रहलाह। मुदा एहनो नहि छैक कि, मात्र यूपी आ बिहारमें जातिवादक राजनीति देखबाक लेल भेटैत अछि। आन प्रदेशक चर्च ओतेक प्रमुखतासँ नहि होइत अछि। सम्पूर्ण भारतमें त’ सबसँ अधिक जातिवाद गुजरातमें अछि, जतय पहिनहिसँ पाटीदार समुदाय सदैव राजनीतिक केन्द्रमे रहल अछि । देशमे आब जाति आ धर्म आधारित राजनीति समाप्त होइत नहि देखा रहल अछि। नब्बेके दशकसँ भारतीय राजनीतिमें परिवर्तन मात्र, धर्म आ जातिके आधार पर देखबाक लेल भेटल अछि। किछु राजनीतिक दल आ नेताक वर्चस्व, मात्र धर्म आ जातिक मुद्दाके आधार पर बनल अछि। जौं ओ राजनीतिक दल आ नेता, एहि दुनू मुद्दाकें छोड़ैत अछि त’ संभवतः ओकर अस्तित्व सेहो समाप्त भ’ जाएत। आब त’ भारतीय राजनीतिमें चुनावके लेल टिकटक वितरण सेहो ओहि क्षेत्रमें जाति आ धर्मक पलड़ा देखिए क’ होइत अछि। जतय तमाम लोकतांत्रिक संस्थामें प्रतिनिधित्वके लेल सीट सेहो जाति आ जातिक आरक्षणके आधार पर निर्धारित अछि त’ सुधारक उम्मीद कोना कएल जाए ? देशमे त’ एखन जाति आ धर्म त’ प्रचलित मुद्दा अछि, चाहे ओ सत्ता पक्ष के लेल होय वा विपक्ष के लेल, तमाम पक्ष जाति आ धर्म देखिए क’ अप्पन आगुक रणनीति तय करैत अछि। राजनीतिक दल द्वारा, वोटबैंकक नफा नुकसान देखिए क’ आगुक योजना बनाओल जाइत छैक। देशमे जाति आधारित राजनीति, जाहि तरहेँ प्रभावकारी सिद्ध भ’ रहल अछि त’ स्वाभाविक छैक कि, जातिके हिसाबसँ राजनीतिक दलक प्रत्येक राजनीतिक संरचना आ ओकर कार्य, संगठन आ व्यवहार सेहो निर्धारित होइत अछि। भारतीय समाजके जाति, धर्म, वर्ग आदिके आधार पर एतेक हद धरि विभाजित कएल गेल अछि कि, संसदीय लोकतंत्रक वास्तविक कार्य सेहो बाधित भ’ जाइत अछि। मनुष्यके अप्पन जन्मक संगहि जाति, विरासतमे भेटैत छैक, आ बादमे ओ ओहि विशेष जाति समूहक सदस्य बनि जाइत अछि। ओ अप्पन राजनीतिक रुझान, दृष्टिकोण आ मान्यताके अपनाबैत काल स्वाभाविक रूपसँ जाति समूह आ जातिवादक प्रभावमे आबि जाइत अछि। एहिमें त’ कोनो दुमत नहि कि देशमे, आब तमाम चुनाव, धर्म आ जातिक नाम पर लड़ल जाइत अछि। तमाम रजनीतिक दल, जाति आ धर्मके आधार पर उम्मीदवारक चयन करैत अछि। बेसीकाल देखबामे अबैत अछि कि, राजनितिक दल, चुनावक समय हर चुनावी क्षेत्रक जातीय समीकरणके अध्ययन करैत निर्णय करैत अछि कि, कोन सीट पर कोन जातिक उम्मीदवार देल जाए। जाहि चुनावी क्षेत्रमें जाहि जातिक मतदाता, निर्णायक भूमिकामें अछि त’ स्वाभाविक छैक कि ओहि सीट पर वएह जातिक उम्मीदवार देल जाएत । ई आइए शुरू नहि भेल, ई पूर्वहिसँ होइत आबि रहल अछि। राजनीतिक दल द्वारा जातीय समीकरणके प्राथमिकता देल जाइत अछि, आ परिणामस्वरूप समाजमे धार्मिक आ जातीय विवाद देखबाक लेल भेटैत अछि। बहुतो एहेन नेता भेलाह आ छथि, जे वर्षों बरिषसँ कोनो विशेष धर्म आ जातिके वोटसँ चुनि क’ सदनमें पहुँचैत छथि। जातीय आ धार्मिक मुद्दाक चुनाव पर असैर त’ पहिनहु होइत रहलैक, मुदा आब एकर असैर किछु बेसिये भ’ रहल अछि। देशमे एखनहुँ, मतदाताक एकटा पैघ वर्ग अछि, जे चुनावमे मात्र अपन जातिके उम्मीदवार आ अपन धर्मसँ जुड़ल व्यक्तिकेँ पक्षमे मतदान करैत छथि। हुनका एहि बातसँ कोनो फर्क नहि पड़ैत छैन्ह कि, ओ उम्मीदवार जीतलाक बाद ओहि क्षेत्रक समस्याक समाधान करत वा नहि। ओ त’ बस जाति आ धर्म देखि मतदान करैत छथि। जहन कि, एहि तरहक लोककेँ, ई बुझबाक दरकार अछि कि, धर्म आ जातिके नाम पर राजनीति कएनिहार नेता, राष्ट्रीय एकताके नुकसान पहुंचा रहल छथि। एहि सन्दर्भमे मात्र राजनेताके दोषी नहि कहल जा सकैत अछि, जनता सेहो ओतबहि दोषी अछि। जातिवादी राजनीतिके लेल नेता नहि, जनता दोषी अछि। मुदा, सोशल मीडियाके माध्यमे जागरूकता बढ़ल अछि, जे सुखद अछि। देशक नव – नव मतदाता, जाति – पाति, आ धर्मके नाम पर नहि अपितु विकासके नाम पर मतदान करैत अछि। मुदा लोकतंत्रक दुर्भाग्य अछि कि, सरकारक मूल्यांकन नहि कएल जाइत अछि। दुर्भाग्यवश किछु प्रतिशत लोक एहनो छथि जे, सोचैत छथि कि, कोन जाति अथवा कोन धर्मक कोन मंत्री होय। जहन कि, जातिवादक राजनीतिसँ नहि त’ देशक कल्याण भेल आ नहिए ओहि जाति विशेषकेँ भला भेल। जौं जातिवादक राजनीतिसँ किनको लाभ भेल त’ ओ मात्र ओहि जातिक राजनीति कएनिहार नेताक भेल। राजनेताके, भारतक दोसर प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्रीक अनुसरण करबाक चाही, जे स्वयं जातिवादके विरोधी रहथि, आ स्वयं कहियो जातिक उल्लेख सेहो नहि करैत छलाह। तथापि, लोक प्रयास क’ रहल अछि कि, कहूना एहि जातिवादसँ मुक्ति भेटए। जाहि दिन, जनता एकर पाछाक खेल बुझि जाएत, तहिये एहि जातिवादी नेताके चक्करसँ जनता मुक्त भ’ जाएत। लोककेँ ई बुझबाक चाही कि, जातिगत राजनीति कएनिहार जातिवादी नेता, सेहो अपराधीक भांति अछि।

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